व्यवसाय को चलाने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है और
अत्यंत जटिल वातावरण में कार्य करना पड़ता है। कम्पनी रूप व्यवसाय संगठन का
अधिक उचित व अत्यंत लोकप्रिय व्यवसाय संगठन हो गया है। इस प्रकार के संगठन
में बड़ी संख्या में व्यक्ति अपना धन लगाते हैं जिन्हें “अंशधारी“ कहते हैं, जो देश व
संसार के कोने-कोने से होते हैं। जो कम्पनी की कार्य चलाते हैं निवेशकर्ताओं पर
दृष्टि नहीं रख सकते इसलिए उनके हितों की रक्षा के लिए, यह आवश्यक है कि
सरकार कम्पनी के कार्य पर निरीक्षण व विनियमितता रखे। इसी उद्देश्य के कारण
कम्पनी अधिनियम बनाया गया और बदलते वातावरण में समय समय पर इसमें
संशोधन किए गए | भारत में सबसे पहला कम्पनी अधिनियम 1850 ई में पारित हुआ
और उस के बाद 1857,1866, 1913 और 1956 में कम्पनी अधिनियम बनें।| कम्पनी
अधिनियम 1956 भाभा समिति की सिफारिशों पर आधारित था। 1956 अधिनियम
में भी व्यापार में बदलती आवश्यकताओं और अधिक जटिलताओं और कुशल प्रबंध
के कारण 1956 अधिनियम में कई बार संशोधन किए गए | अंतिम संशोधन कम्पनी
(संशोधन) अधिनियम 2006 द्वारा लागू हुए।
कम्पनी अधिनियम 2013
कम्पनी अधिनियम 1956 के स्थान पर अब कम्पनी अधिनियम 2043 लागू है, यह
अधिक आधुनिक, साधारण व यथायोग्य विधान है। इस नये अधिनियम का उद्देश्य
हमारे कम्पनी विधि को संसार की सर्वोत्तम कार्य प्रणाली के बराबर लाना है।
2013 के अधिनियम मे एक व्यक्ति कम्पनी के साथ ही कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व(Corporate Social Responsibility),
वर्ग कार्रवाई अभियोग (Class action suits) व
स्वतंत्र निदेशकों का निर्धारित समय जैसे विचार लागू किये हैं।
इसमें जनता से धन एकत्र करने, कम्पनी निदेशकों या मुख्य प्रबन्धकीय कर्मचारियों
(Key Managerial) द्वारा भेदिया व्यापार करने सम्बंधी कार्यों को अपराध
मान कर प्रावधानों को कड़ा किया गया है। यद्यपि यह सार्वजनिक कंम्पनियों को भी
शेयर धारकों के समझौतों में “पहले प्रस्ताव का“ या “पहले इंकार" करने का अधिकार भी प्रदान करता है।
और इसके अनुसार कुछ कम्पनियों को पिछले तीन वर्षो के औसत शुद्ध लाभ का 2%
प्रतिशत कम्पनी सामाजिक उत्तरदायित्व कार्यों के लिए अलग रखना होगा व इस
प्रक्रिया में अपनायी गयी नीति की अंशधारियों को जानकारी देनी होगी।